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खिल रही चेहरे की कली

 खिल रही चेहरे की कली, मन क्यों तू गा रहा राज कुछ मन में छिपा, चेहरा तेरा बतला रहा।। ख्वाब जो मन में पले, सच क्या वो रहे,  देख तेरे चेहरे की खुशी, माहौल भी इतरा रहा।।  गीत खुशी के गा रहा,कोई शायर हो गया,  दिल दिवाना हो गया, मन मस्ताना हो गया।।  हवाओं में तू उड़ रहा, बादलों सा घिर रहा,  आज फिर नयी कहानी कहने को तू बहक रहा।।  चहक रहा, बहक रहा, पांव जमीं पर ना धर रहा,  चल उड़ चले नये जहां मे,मोहब्बत का होआसमां।। चांद - तारों पर लिखेगें, मोहब्बत की नयी दास्तान,  आसमां से नूर बरसे, प्रेम हो दिल में भरा।। 
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चहत सबकी मोहब्बत

चाहत सबकी मोहब्बत है, फिर भी..  ना जाने क्यों नफरत की पगडंडियाँ बनाते हैं। अपनों से ही मोहब्बत है.. जाने कहाँ से गलतफहमियां ढूढ लाते हैं। जीवन की कश्ती में,अंहकार का चापू चलाते हैं। स्वार्थ में अंधों की तरह अकेले ही महल बनाते हैं, और महल की दिवारों से अकेले ही बातें करते हैं।  फिर घबराकर जमाने में लौट आते हैं  और अकेलेपन का गान गाते हैं।  मंजिल सबकी एक है, चाहत सबकी एक है ,  चलो फिर हंस के रास्ते काटते हैं,  कुछ गीत गुनगुनाते हैं, कुछ ठहाके लगाते हैं।  जीने के खूबसूरत अंदाज बनाते हैं  जमाने को परस्पर प्रेम का पाठ पढाते हैं।  तेरे-मेरे की दूरियां मिटाते हैं  स्वार्थ को भूल जाते हैं,  परमात्मा नहीं किसी को कम-या  किसी को अधिक देता, प्रकृति से यह बात सीख जाते हैं,  नदियाँ, सागर, वृक्ष, खेत-खलिहान  सभी तो एक सामान सबकी क्षुधा मिटाते हैं  चाहत सबकी मोहब्बत है  चलो फलदार वृक्ष लगाते हैं,  प्रेम के दरिया से जीवन को रसमय बनाते हें। 

संवेदनाओं का क्रंदन

मानव मन की सुन्दर कोमल  भावनाओं का दाह संस्कार होते देख  मेरी संवेदनाऐं जागृत हो ह्रदय रुदन करने लगीं आततायी संवेदन शून्य हो,  भावन रहित हो गये थे.. क्रूरता पशुता  राक्षस वृति को अपनाकर , आंतक  का घिनौना गंदा खेल रहे थे  घायल हुये थे कुछ लोग,  कुछ इस दुनिया से चले गये थे,  एक बार फिर तहलका मचा था मर गयी थी,करूणा, दया,संवेदना  मची थी तबाही,सब कुछ अस्त -व्यस्त था सब सहमें हुये से डरे हुये थे  बच्चे घरों में कैद थे,घरों में सन्नाटा पसरा हुआ था, हर कोई भयभीत था  मनुष्य के भीतर पशुता, राक्षसवृत्ति जन्म ले  अत्याचार पर अत्याचार कर रही थी   मां की ममता कराह रही थी, दुहाई दे रही थी  उस मां की जो जगतजननी है, सबकी मां है..  कह रही थी मनुष्य जाति का मान रख..  निसर्ग से प्राप्त कोमल संवेदनाओं का  क्रन्दन मचा रहा है तबाही... अंहकार  किस बात का अंत तो सबका एक ही है। 

नयी - नवेली

 समय की रफ्तार के साथ  मैं भी बह गयी, रोकना चाहा पर जल की धारा थी आगे की  ओर बहने लगी।  बहना मेरा स्वभाव है, बहुत कुछ समाया स्वयं में  पर कुछ ना एकत्र किया  जब-जब हलचल हुई  सब किनारे पर लगाती गयी वक की रफ्तार के साथ बहती चली गयी, हर दिन नूतन नवेली पर समय की रफ्तार के साथ मैं बहती रही  रुकी नहीं, रुकती तो बासी हो जाती विकार उत्पन्न हो जाते मुझमें  मैं बदली नहीं, हर दिन नयी नवेली आगे की और बढती जल धारा की तरह... 

करूण संवेदना

आज फिर जागी थी संवेदना, आंखों में चमक थी, दूर हूई थी वेदना  चेहरे पर खुशी थी,जीवन में नयी आस दिखी थी आज फिर से घर के दरवाजे खुले थे  रसोई घर से पकवानों की सुगंध महक रही थी  घर के आंगन पर जो तख्त पड़ा था,  उस पर नयी चादर बिछी थी,  आज दो कुर्सियां और लगीं थीं  चिडियां चहक रही थीं.. दादी की नजरें दरवाजे पर टिकी थीं।  आंगन में कुछ पापड़ वडियां सूख रही थीं  आज दादी ने नयी धोती पहनी थी।  दादी उम्र से कम दिख रही थी  साठ पार आज पचास की लग रही थीं  सारी बिमारियां दूर हुई थी.. आज दादी की बात  पोते से हुई थीं, इंतजार की घडियां  करीब थीं आज फिर पोते के दिल में  दादी के प्रति संवेदना जगी थीं  नेत्रों से प्रेम की अश्रु धारा प्रवाहित थी,  आज फिर करूण संवेदना हर्षित थी।।  जिन्दगी फिर जी उठी थी।। 

संवेदना का दम घुट रहा...

 संवेदना कहाँ लुप्त हुयी..  अंहकार के पैरों में गिरी  स्वार्थ ने कुचल दी..  संवेदना बिचारी सहम गयी  संवेदना घुट-घुट दम तोड़ रही..  मृग तृष्णा सी दुनियां में, अंध छलावा हो रहा हासिल कुछ नहीं होगा, भाग रहा है हर कोई। नाटक में नाटक चल रहा,जाने क्यों मानव भटक रहा। ऊंचाई पर पहुंचने की खातिर,मानवता है गिर रही, संवेदन शून्य हुआ मानव, मैं का दम्भ भर रहा गिनता कागज की कश्तियां, पानी में सब बह रहा। समाजिक मेलजोल है ज्यादा,बुजुर्ग माता-पिता से कटा.. घर की दिवारें रो रहीं, बाहरी रुतबा खूब बड़ा  कर्मों में कर्मठता जागी. भीतर से सब टूट रहा  संवेदना शून्य हुआ मानव, राक्षस वृत्ति जाग रही।  एक दिन जब संवेदना जागेगी..  सब होगें मौन.. आंखों से अश्रु धारा बह रही होगी  ह्रदय होगा द्रवित.. जीवन का यह गणित।।  जीवन का यह गणित।। 

संवेदना की बाती

  सहयोग मीठा एहसास है ह्रदय में संवेदना  परस्पर प्रेम को जीवन का गणित बना।।  स्वार्थ बना सर्वोपरी, संवेदना मानों मरी कौन किसका है यहां, स्वार्थ ही सब कुछ हुआ।। मैं-मैं सब कर रहे, हम तो जाने कहाँ गया मेरा -मेरा का घमंड हुआ,समर्पण जाने कहाँ गया।। मैं-मैं की शोर मचा, बांध गठठ्रर सब खड़े मानों ले जायेगें सब साथ यह,इतरा रहे बड़े-बड़े।।    स्वप्न में स्वप्न दिखे हर्षा रहे, सब स्वप्न में,  नींद में सब थे दिखे, जाने क्यों लड़ रहे।।     अंहकार किस बात का ,आये शहंशाह बडे-बडे। महल ऊंचे सब .. धरे यहीं, दौलत पर संग्राम हुआ मिट गये नामोनिशान यहीं।।    जी गये जो जिन्दादिल थे, संवेदना थी जिनमें बची  त्याग, प्रेम दया सहानुभूति की बाती जगा रोशन किया जग सभी...  सहयोग की मशाल जला, जग होगा रोशन तभी।।