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Showing posts from January, 2023

क्यों आती है नींद ?

  क्यों आती है नींद  ..फिर नींद  में क्यों आते हैं सपने  ... क्यों आती है नींद  ? नींद में सपने क्यों आते हैं ..? कई बार हम सपनों की दुनियां में हम खो जाते हैं जैसे .. जब नींद  खुलती है तब कुछ  देर  के लिए  सोच में डूबे रहते हैं .. इस बारें में आप क्या कहना चाहेंगे क्यों आती है हमें नींद?

शुभागमन शुभारंभ

 मां शारदे दे रही आशीर्वाद है  बसंत की बहार है गणतंत्र की पुकार है  धैर्य,विवेक के संकल्प से  नव भारत को रचना नया संसार है .. भारतीयता ही सरोकार है माता के संस्कार  हैं  दे रही दुलार  ,प्रकृती भी प्यार  है  सर्वस्व  प्रेम.का संचार  है  भारत माता का आशीष है  मर्यादा से सम्भाल रखना  भारत  माता का सर्वस्व देश का भार है प्रेम से संचित  बागान हैं  बागवान भारत माता कर रही वसुन्धरा का हार श्रृंगार  है ...

मेरा जन्म

धरती मां की गोद में आराम  से सोयी थी  बढना प्रकृति का नियम है  जिस दिन नन्हीं कली बनकर  खिली  बागवान  की आंखो में चमक थी  परवरिश को मेरी कोई  ना कमी छोङी थी  सूर्य का ओज बागवान  का समर्पण   प्रकृति ने मुझे  बेहतरीन  रंगों की सौगात  बख्शी  मैं पुष्प  बनकर  खिली ..बागों की और  सबकी नजर रुकीं  बागों में आकर्षक पुष्प  खिले थे..प्रकृति के करिश्मों पर  सब मन्त्रमुग्ध थे ..आकाश  की छत  मिट्टी की गोद   सूर्य की ओजस्वता  ..जल की निर्मलता ,शीतलता .. तेज हवाओं की लहर से भी खूब  लङी थी  आंधी - तूफानों का दौर  भी देखा .. फिर भी मैं खुश हूं अपने इस छोटे से जीवन मे .. मैं पुष्प  मन की मधुरता का पर्याय बना .. बागों की रौनक बन ..हवाओं में इत्र बनकर बहा सफल है जीवन  मेरा ..खुशी हो या गम  ..हर जगह  सजा ...महत्वपूर्ण  स्थान मिला ..

शब्द बने व्यक्तित्व की पहचान

शब्द बने व्यक्तित्व की पहचान   शब्द तपस्या, विचार हवन  सरल, मधुर, सहज भावों की  पवित्र अग्नि..शुभ साकारात्मक वातावरण  ह्रदय बहे निर्मल पवित्र भाव रस धारा ..  रस -रसायन पावन -पवित्र आशीष सम्मान    शब्द  प्रवाह  ध्वनि आकार   शब्द  सजाओ, शब्द संवारों इन्हीं से रचता- बसता संवरता  यह सुन्दर संसार  ... शब्द महिमा मन का प्राणायाम   शब्दों का करना सदा सम्मान   शब्दों का ना करना कोलाहल   शब्दों ने समाहित  सारे हल  शब्द बनकर  ढाल  हर दुविधा का  निकाले हल ... शब्द अराधना शब्द  तपस्या  शब्दों का जीवन  में बङा ही मोल ...

अथाह आलौकिक दिव्यता

"अथाह आलौकिक निर्मल मन की पवित्रता  धर्म  मनुष्य  की सौम्यता सच्चा धर्म ना भटकाये कभी  सर्व जन हिताय कर्म  निभाए सदा" धर्म  का ना बाजार बनाओ  धर्म के नाम पर ना भटकाओ  धर्म के नाम पर  ना डराओ  धर्म  के नाम पर ना समाज को गुमराह करो  धर्म  के नाम  पर  अपनी शक्तियों का दुरुपयोग ना करें  शक्तियां देवों में भी होती हैं, दैत्यों में भी होती है  प्रकृति भी उन्हीं का साथ देती है ,जो सत्य का मार्ग बताये सत्य मार्ग  चले  श्रीराम  श्रीकृष्ण जीवन जीना की कला  एवं मर्यादित जीवन  जीने का संदेश  देते हैं धर्म का पर्याय तो प्रहलाद. ध्रुव  राम ,कृष्ण आदि हैं और अनादि काल  तक  रहेगें ..शक्तियां तो राम में भी थीं.. रावण में भी थीं कंस में भी थी ,हिरणयकश्यप में भी थीं ... शक्तियों  का उचित  उपयोग आपको महान  बनाता है.. धर्म  अद्वितीय शिक्षा,  उच्चतम दीक्षा.. धर्म यही शिक्षित हों सभी निरोगी हों सभी  कमतर  ना कोई  भीतर एक भाव जगा  जागृत कर स्वयं की आस्था .. स्वयं पर पूर्ण  विश्वास रख .. निस्वार्थ कर्म प्रेम की अखण्ड  ज्योत जलती रहे सदा ...

संतोष का धन

जाने क्या पाना चाहता है यह मन  ना खुद चैन से रहता है ना मुझे  रहने देता है .. भटकाता रहता है  हर पल ..अपने दायरों से बाहर   निकल कर ऊंची- ऊंची उङाने भरता है  जो मुमकिन नहीं.. उसे मुमकिन कर गुजरने  की जिद्द  मेरी नहीं..मेरे मन की है .. समुंद्र में उठती लहरों की तरह उछल- उछल कर   अपने संग जाने क्या- क्या बहा ले जाना चाहता है  नहीं लेने का नहीं देने का शौक रखता है मेरा मन  ऐसा क्या करूं जो सबको खुशी दे पाऊं  सबके लिए  बेहतर से भी बेहतरीन  हो  कुछ  कर गुजरने की जिद्द ना जाने  मुझे कहां ले जाये .. सीमाऐं तो बढाने पङेगीं  दायरों से बाहर  निकल  कर  एक नया कारवां  चलाना होगा .. जन्म लिया है तो जीना तो होगा ही  पर सामंजस्य  बिठाकर  तुला की नोंक पर संतुलित  फलदार  वृक्ष  की भांति सदैव  हरे- भरे रहने और   निरंतर  कुछ  ना कुछ  देते रहने का भाव  देकर   भेजा है भगवान  तो भरपूर  कर दो मुझे संतोष  के धन का वरदान दो .मन को ठहराव दो ...     

पर्वतों की पुकार

पर्वतों से ही वसुंधरा का श्रृंगार   पर्वत जल औषधी एवं वनस्पतियों का भण्डार  पर्वत उच्चतम विशालकाय दीवार  प्राकृतिक आपदाओं एवं शत्रुओं के समक्ष ढाल .. प्रकृति की दिव्य सम्पदा पर्वत  पर्वतों ने आंचल में अपने निज निवास को स्थान दिया  कृतार्थ  हो नमन तुम करते  पूजकर संरक्षण भी करते  चीर दिया सीना गिरी का  बेइंतहा निर्माण  किया  कतरा - कतरा बिखर रहे पर्वत  स्वार्थ में पर्वतों का कत्ल ए आम किया  अडिग धरा हलाहल करती आसन अपने से डगमगा गयी  चित्कार रही ..गोद मेरी मनुष्य  तुमहें समर्पित  प्रसन्नचित्त पालित पोषित हुये तुम  सुख समृद्धि का साम्राज्य बसाया  दुलार मेरे का लाभ उठाया, लोभ का साम्राज्य बढाया गोद मेरी लहूलुहान हुई ,सहनशीलता अब नष्ट  हुई ... पर्वत अब पुकार रहे दर्द से कराह रहे  स्वार्थ में बढाकर बोझ पर्वतों पर कर दिये अत्याचार बेखौफ   रोक मानव अब भी रोक ..विनाश को अपने ना कर अंधी दौङ . सम्भल जरा तू देख पर्वत प्रकृति का सौन्दर्य हैं पर्वत ... हिमगिरि जल का स्रोत.. जङी- बूटियां जीवन रक्षक  चल हो नतमस्तक  पर्वतों पर विराजित  दैवीय तत्व  ... रसायन इन्हीं के अचेतन में भरते प्राण हैं  पर्वत हैं

हिंदी मेरी मातृ भाषा गर्व से कहती हूं..

परिचिता :-  विदेश से लौटी  मेरी एक परिचिता ... अग्रेजी में पटर- पटर करती .. अपने आप को नये जमाने की आधुनिक  समझती ...  मुझे भी अंग्रेजी में बोलने के लिए  प्रेरित करती । कहती जीवन  में आगे बढना है तो अंग्रेजी बोलना सीख ले । बताओ --? यह भी कोई बात हुई  ... मैने भी कह दिया ना भई ना ..."हिन्दुस्तान में जन्मी.. पहचान मेरी हिन्दी" "हिंदी मेरी मात्र भाषा मेरा सम्मान मां तुल्य पूजनीय है" ... *हिंदी मुझे विरासत में मिली है* ... मेरे माता - पिता दादी- दादा सभी आपस में हिंदी में ही बात करते आये हैं ... और  मेरी दादी तो बचपन से मुझे हिंदी की ही पुस्तकें पढ कर नैतिक  शिक्षाप्रद  कहानियां सुनाती थीं.. उन कहानियों के छाया चित्र आज भी मेरे मानस पटल पर अपनी अद्वितीय  छाप बनाये हुए हैं..  मेरा मार्गदर्शन करते हैं ..  पंचतंत्र की  कहानियां की विषेशताओं से कोई  भी भारतीय  अनभिज्ञ  नहीं ..  रामचरितमानस  .. भागवत गीता .,महाभारत  .. चारों वेद ,उपनिषद  ... विश्व पटल पर अपना लोहा मनवाने में समक्ष हैं। क्योकि मैं हिंदुस्तानी ,हूं सर्वप्रथम मेरी मात्र भाषा हिंदी को स्थान दूंगी ...  हां मैं को

कोहरे का संदेश

 ओढ कर  कोहरे की श्वेत  मखमली चादर  धरा ..आकाश कहीं गुम हुए  राहें नही आती नजर..  जाना है पर.. सफर पर .. धीमे- धीमे बढाने होगें कदम   बैठा है कोहरा राह  घेरकर  चलना होगा सम्भलकर  दिख रहा है कुछ कम -कम ना डर  सरक रही कम - कम मगर  ओढ़नी से झाँककर  भानू की किरणें उधर  दूर आकाश से आ रहा उजाला है तो  पर जरा सी देर से ... हट जायेगा कोहरा मगर.. सम्भल ... जल्द बाजी ना कर.. गम ना कर देर  देर हो थोडी अगर  ...

पुरस्कारों का बाजार ..लघु कथा

 राधिका अरे !  रुचिका .. तुझे तो खुश होना चाहिए.. तुझे राष्ट्रीय पुरस्कार  मिला है .. रुचिका :- हां पुरस्कार .. आज एक और मैसेज आया है विश्व  स्तरीय  पुरस्कार  का ..  राधिका :- अरे वाह! रुचिका .. तुम्हारे तो मजे ही मजे हैं ... रुचिका :- क्या मजे राधिका .. ऐसे ही थोड़े  मिल जायेगा मुझे पुरस्कार  .. रजिस्ट्रेशन  फीस  जमा करानी पढेगी  ...और  अगर  फीस  जमा नहीं करायी तो पुरस्कार  नहीं मिलेगा .. राधिका :- तो फिर  करा ले रजिस्ट्रेशन  .. रुचिका :- राधिका इस  बार  दिल नहीं मान  रहा ... यह तो पैसे देकर  पुरस्कार  लेने जैसा हुआ ...  राधिका :- रुचिका तो तुम अपने पहले पुरस्कार  से खुश  नहीं हो क्या ? रुचिका --;   खुश तो मैं हूं .. क्योकि  इतना तो मुझे यकीन है ..कि मैने जो भी कार्य किया वह बेहतरीन है . .लेकिन जाने क्यों मन में ग्लानि के भाव हैं .. ऐसा लग रहा है पुरस्कारों का बाजार  लगा हुआ  है ..अपना नाम दो और  कुछ नियम पालन  करो और  पुरस्कार  ले लो ... राधिका .. तू भी ना रुचिका सत्यवादी हरिश्चंद्र  ...काम तो तुमने किया ही है रुचिका .... अब प्रधानमंत्री स्वयं आकर  थोड़ी  कहेंगें  .. हम तुम्हे.. तुम्

होङ को छोङ

 आगे बढने की होङ में  पाने को नया कुछ ओर ... बहुत  कुछ  रहा है मनुष्य  तू छोङ .. रंगीन  दुनियां के जगमगाते सपनों   की ओर  बढते तेरे कदम तेरे किस दुनियां की और   जहां नहीं होती कभी भोर..थिरकते कदम बस शोर... स्वर्णिम कांति मन को भरमाती  प्रतीत.. मध्य नीर रजत दुशाला   मन हरपल माया से भरमाया....... समय अभी है हो जायेगी तेरे जीवन में भोर .. ______________________ सागर सम वृहद सोच  जिसका नहीं कोई  छोर .. पीछे दिया सब कुछ छोड़ .. देख प्रतिबिंब मन जागे लोभ.. तपते हौसलों की कर्मठता देख भीतर दामिनी जलती  यूं ही नहीं बनता कोई विषेश   स्वयं के भीतर भी तो झांक  बाहर रहा क्या देख ... भीतर की ऊर्जा को तू तपा  मन में शुभ संकल्प जगा  नहीं भागने की.जिद्द कर  स्वयं पर कर कुछ  काम   जैसे सागर मध्य अनमोल  रत्न   मन मस्तिष्क में तेरे ब्रह्मांड का तेज  भागने की जिद्द छोङ  तुझमें ही समाहित मनुष्य   नवीनतम से नवीनतम संजोग .... चल आ चलें भीतर की यात्रा की ऊर्जा से समाज  में लायें साकारात्मक भोर....

समय और मानव

समय की रफ्तार  भी क्या कहीए  एकदम सटीक नियमानुसार   समय अपने समय पर चलता रहा ... समय कल भी चलायमान था आज भी चलायमान  है  रुके तो तुम रह गए ऐ मानव .. मनुष्य की चाल  बदली ढाल बदली  दोष वक्त  को दे दिया  वक्त  की रफ्तार  तो कभी ना बदली  चलना है तो समय के साथ पल -पल साथ चल कर देख  सही समय पर सही कदम उठाकर तो देख .. वक्त भी तेरा कदरदान होगा  समय के जैसे नियम बनाकर तो देख  वर्ष बीतेगें  ...युग बीतेगें  इतिहास  गवाह  होगा  सही समय पर सही कदम उठाकर  तो देख  समय और मनुष्य में में एक बङा अंतर रहा  समय युगों में बढता रहा. मनुष्य  तेरी उम्र  बढने के साथ पल - पल सांसो की उम्र  घटती रही ..