Skip to main content

Posts

Showing posts from May, 2024

संवेदना प्रकृति का आधार

 संवेदनशील होना साधारण बात नहीं संवेदनाऐं प्रकृति प्रदत दिव्य उपहार है संवेदना ही मनुष्य को मनुष्य होने का एहसास कराती है।  जाने कहाँ से उपजा होगा संवेदनाओं का  अथाह सागर... जिसके रत्न हैं उपकार त्याग, दया, प्रेम, सहनशीलता आदि...  संवेदनाऐं ही प्रकृति का आधार है.. तभी तो कुटुम्ब परिवार हैं, रिश्ते-नाते और त्यौहार हैं।  संवेदना रहित मनुष्य को, दिखता बस स्वार्थ है।  अंहकार का नशा करता अत्याचार है...  भ्रम में जीता, उजाला समझ.. अंधी गलियों में बसाता संसार है - - फिर अंत मे होती हाहाकार है।।  संवेदना विहीन धरा पर भार है।। 

छुट्टियां

 कुछ छुट्टियां बिताने मनुष्य बनकर  धरती के सफर पर आयी हूं।  प्रकृति का दीदार करने धरा पर आयी हँ।  वाह! वसुंधरा पर प्रकृति का श्रृंगार  अद्भुत, अतुलनीय, अकथनीय।  प्रकृति यहां गीत गुनगुनाती है  झरने वाद्य बजाते हैं, तन-मन की निर्मलता  को नदियों का अद्भुत संगम यहाँ।  खेतों की हरियाली मन को भा जाती हैं  शीतल हवायें प्राणवायु बढाती हैं।  वृक्षों पर मीठे फल भी आते हैं, पेट क्षुधा को  तृप्त कर जाते हैं।  आते हैं,जाते हैं, मुसाफिर यहां,  कुछ खूबसूरत भव्य आलीशान  निस्वार्थ प्रेम के महल  बनाकर जाऊंगी।  खुशियों की चाबी भी संग अपने लायी हूँ।  मोहब्बत के तराने भी गुनगुनाऊंगीं ।  परस्पर प्रेम के बीज भी लायी हूँ।  लौट जाने से पहले अपनत्व की फसल  लहलहाने आयी हूँ।  नहीं उलझना मुझे शिकवे - शिकायतों में  जीवन का हर लम्हा सुख-चैन से जी के बिताऊगी ।  

खुशी

खुशी जीवन का सुन्दरतम श्रृंगार है, खुशी अपनत्व का मीठा एहसास है।  खुशी मन का भी सौंदर्य है। खुशियों की चाबी बाहर नहीं  मन के भीतर छिपी होती है, चाबी को ढूढकर, खुशियाँ खोज लाना यही तो जीवन का आधार है।  फिर क्यों ढूढते हो खुशी को इधर-उधर खुश रहने का मंत्र तो आपके पास है। नहीं निर्भर हमारी खुशी किसी पर  हम तो खुद खुशी का पर्याय हैं  हमें देख लोग बिन बात मुस्करा जाते हैं। प्रकृति से मिला सुन्दरतम उपहार है। 

भ्रम

भ्रम में जी रहे हैं सभी बिन बात का भ्रम ,  डर का भ्रम , भ्रम ही भ्रम में  उलझनों का भ्रम  अनहोनी का भ्रम  धोखे का भ्रम  झूठ का भ्रम  अपवाद का भ्रम  निंदा का भ्रम  द्वेष का भ्रम  षड्यंत्र का भ्रम  भ्रम से खत्म हुआ, जीवन का आनन्द ।  भ्रम एक मायाजाल,मन का कोलाहल  भ्रम जागती आंखों का दु:स्वप्न  भ्रम एक नाकारात्मकता सोच..  भ्रम हर लेता मन की शुभ सोच..  भ्रम के अंधेरे से बाहर निकलो  तभी होगा साकारात्मक सोच का सवेरा  भ्रम है रात का अंधेरा,   भ्रम की नींद से जागो तभी होगा  साकारात्मक सोच का सवेरा।। 

मेहरबानी

मेहरबानी मांगनी है, तो परमात्मा प्रेम से मांगों  परमात्मा के आशीर्वाद की मांगों.. उसी की मेहर से  ही है यह धरती,यह आसमां....  मेहरबानीयों का मंजर, उसकी अथाह है    प्रकृति बिना किसी भेदभाव के सबको दे रही है।  हम तो बस रोते रह गये, सामने दरिया था  फिर भी प्यासे रह गये।  मेहरबानी तो स्वयं पर स्वयं की करनी है, विवेक से जीवन की गुत्थियां सुलझानी है।  मेहरबानी ही तो उसकी है,की हम सक्षम हैं,  हम सवंचछ हैं, हम बुद्धि, बल, विवेक से भरपूर हैं  दिया ऊपर वाले ने जी भर के दिया है,  हमें लेना ही नहीं आया तो वो क्या करे।।  थोङा प्रयास करना है, समक्ष खजाने भरे पड़े हैं,  उपयोग करने की विधि सीखनी है, वो सदा से ही  मेहरबान था, मेहरबान रहेगा, उसकी मेहरबानीयों  का सिलसिला सदा यूं ही चलता रहेगा। 

खिल रही चेहरे की कली

 खिल रही चेहरे की कली, मन क्यों तू गा रहा राज कुछ मन में छिपा, चेहरा तेरा बतला रहा।। ख्वाब जो मन में पले, सच क्या वो रहे,  देख तेरे चेहरे की खुशी, माहौल भी इतरा रहा।।  गीत खुशी के गा रहा,कोई शायर हो गया,  दिल दिवाना हो गया, मन मस्ताना हो गया।।  हवाओं में तू उड़ रहा, बादलों सा घिर रहा,  आज फिर नयी कहानी कहने को तू बहक रहा।।  चहक रहा, बहक रहा, पांव जमीं पर ना धर रहा,  चल उड़ चले नये जहां मे,मोहब्बत का होआसमां।। चांद - तारों पर लिखेगें, मोहब्बत की नयी दास्तान,  आसमां से नूर बरसे, प्रेम हो दिल में भरा।। 

चहत सबकी मोहब्बत

चाहत सबकी मोहब्बत है, फिर भी..  ना जाने क्यों नफरत की पगडंडियाँ बनाते हैं। अपनों से ही मोहब्बत है.. जाने कहाँ से गलतफहमियां ढूढ लाते हैं। जीवन की कश्ती में,अंहकार का चापू चलाते हैं। स्वार्थ में अंधों की तरह अकेले ही महल बनाते हैं, और महल की दिवारों से अकेले ही बातें करते हैं।  फिर घबराकर जमाने में लौट आते हैं  और अकेलेपन का गान गाते हैं।  मंजिल सबकी एक है, चाहत सबकी एक है ,  चलो फिर हंस के रास्ते काटते हैं,  कुछ गीत गुनगुनाते हैं, कुछ ठहाके लगाते हैं।  जीने के खूबसूरत अंदाज बनाते हैं  जमाने को परस्पर प्रेम का पाठ पढाते हैं।  तेरे-मेरे की दूरियां मिटाते हैं  स्वार्थ को भूल जाते हैं,  परमात्मा नहीं किसी को कम-या  किसी को अधिक देता, प्रकृति से यह बात सीख जाते हैं,  नदियाँ, सागर, वृक्ष, खेत-खलिहान  सभी तो एक सामान सबकी क्षुधा मिटाते हैं  चाहत सबकी मोहब्बत है  चलो फलदार वृक्ष लगाते हैं,  प्रेम के दरिया से जीवन को रसमय बनाते हें।