संवेदना कहाँ लुप्त हुयी.. अंहकार के पैरों में गिरी स्वार्थ ने कुचल दी.. संवेदना बिचारी सहम गयी संवेदना घुट-घुट दम तोड़ रही.. मृग तृष्णा सी दुनियां में, अंध छलावा हो रहा हासिल कुछ नहीं होगा, भाग रहा है हर कोई। नाटक में नाटक चल रहा,जाने क्यों मानव भटक रहा। ऊंचाई पर पहुंचने की खातिर,मानवता है गिर रही, संवेदन शून्य हुआ मानव, मैं का दम्भ भर रहा गिनता कागज की कश्तियां, पानी में सब बह रहा। समाजिक मेलजोल है ज्यादा,बुजुर्ग माता-पिता से कटा.. घर की दिवारें रो रहीं, बाहरी रुतबा खूब बड़ा कर्मों में कर्मठता जागी. भीतर से सब टूट रहा संवेदना शून्य हुआ मानव, राक्षस वृत्ति जाग रही। एक दिन जब संवेदना जागेगी.. सब होगें मौन.. आंखों से अश्रु धारा बह रही होगी ह्रदय होगा द्रवित.. जीवन का यह गणित।। जीवन का यह गणित।।