भटकता रहा मंजिलों की तलाश मे दर -दर.. थक हार के बैठा तो पाया जहाँ से चला था वहीं तो थी,मंजिल मेरी।। दूर आसमानों में किसी सुंदर जहाँ की तलाश में फिर निकल पड़ता है मन मंजिल की तलाश में। राहों के उतार - चढाव को पार करते-करते फिर घबराता हूँ, सोचता हूँ, जहाँ से चला था मंजिल वो ही सूकून भरी थी। बुद्धि की तीव्रता कहां चैन लेने देती है मन को बहुत उकसाती है। सपनों के महल बनाती है जो है उसमें कहां संतुष्ट होती है दूर आसमानों की ऊचाईयों में खुशियों के महल बनाती है।