जाने कहां जा रहे हैं सब मंजिल कहीं ओर है ,रास्ते कहीं ओर जान - बूझकर मंजिल से हटकर अन्जानी राहों पर चल रहे हैं लोग सब अच्छा देखना चाहते हैं सब अच्छा सुनना चाहते हैं अच्छाई ही दिल को भाती भी है अच्छाई पाकर गदगद भी होते हैं सब.. भीतर सब अच्छाई ही चाहते हैं फिर ना जाने क्यों भाग रहें हैं , बिन सोचे समझे अंधों की तरह भेङ चाल की तरह ,जहां जमाना जा रहा है हमारी समझ की ऐसी की तैसी ,जहां जमाना जायेगा हम भी वहीं जायेगें ,बिना सोचे- विचारे अंधी दौङ में ,फिर चाहे खाई में गिरे या कुएं में .. अब रोना नहीं ,जिसके पीछे भागो हो ,वही मिलेगा जो जिसके पास है ... समझाया होगा मन ने कई बार ... पर अपने घरवालों और अपने मन की कौन सुनता है .. घर की मुर्गी दाल बराबर ... अपने सबसे अजीज मित्र अपने ही मन का जो ना हुआ ... उसकी जमाने से अच्छाई की उम्मीद करना निर्रथक है .... अच्छाई जो दिल को भाती है ...तो अपने मन की सुनों मन की करो मन कभी गलत राह नहीं दिखाता ,उसे फिक्र होती है अपनों की ,भटकने से रोकता है मन ,समझा...