अपूर्णता से पूर्णता की और भटकता मानव भटकता है पूर्णता पाने के लिए अपूर्ण जगत में खोजता है पूर्णता पूर्णता कहां से लाये, अपूर्ण हैं सभी बाहर खोजते - खोजते जब थक जाता है तब शांत अवस्था में मिलता है शांति का द्वार स्वयं के ही भीतर अचंभित, विस्मित, फिर माया का प्रवाह कुछ पल में फिर गुमराह क्यों भटकता है मानव दर ब दर सब तेरे भीतर है, बाहर सब आकर्षण है माया है। पहुंच तेरी पहले हो अपनी ओर सब कुछ मिल जायेगा। बाहर कुछ नहीं भीतर पूर्णता है बाहर सब अपूर्ण हैं तभी तो भटक रहें हैं, जो स्वयं अपूर्ण है वह किसी ओर को क्या पूर्ण करेगा। और स्वयं भी क्या पूर्ण होगा। सब स्वयं में पूर्ण हैं।