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Showing posts from July 6, 2024

सब स्वयं में पूर्ण हैं

अपूर्णता से पूर्णता की और भटकता मानव भटकता है पूर्णता पाने के लिए  अपूर्ण जगत में खोजता है पूर्णता  पूर्णता कहां से लाये, अपूर्ण हैं सभी  बाहर खोजते - खोजते जब थक जाता है  तब शांत अवस्था में मिलता है  शांति का द्वार स्वयं के ही भीतर  अचंभित, विस्मित, फिर माया का प्रवाह  कुछ पल में फिर गुमराह   क्यों भटकता है मानव दर ब दर सब तेरे भीतर है, बाहर सब आकर्षण है माया है।  पहुंच तेरी पहले हो अपनी ओर सब कुछ मिल जायेगा। बाहर कुछ नहीं भीतर पूर्णता है   बाहर सब अपूर्ण हैं तभी तो  भटक रहें हैं, जो स्वयं अपूर्ण है वह किसी ओर को क्या पूर्ण करेगा। और स्वयं भी क्या पूर्ण होगा। सब स्वयं में पूर्ण हैं।