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होङ को छोङ

 आगे बढने की होङ में 

पाने को नया कुछ ओर ...

बहुत  कुछ  रहा है मनुष्य  तू छोङ ..

रंगीन  दुनियां के जगमगाते सपनों  

की ओर  बढते तेरे कदम तेरे किस दुनियां की और  

जहां नहीं होती कभी भोर..थिरकते कदम बस शोर...

स्वर्णिम कांति मन को भरमाती 

प्रतीत.. मध्य नीर रजत दुशाला  

मन हरपल माया से भरमाया.......

समय अभी है हो जायेगी तेरे जीवन में भोर ..

______________________

सागर सम वृहद सोच 

जिसका नहीं कोई  छोर ..

पीछे दिया सब कुछ छोड़ ..

देख प्रतिबिंब मन जागे लोभ..

तपते हौसलों की कर्मठता देख

भीतर दामिनी जलती 

यूं ही नहीं बनता कोई विषेश  

स्वयं के भीतर भी तो झांक 

बाहर रहा क्या देख ...

भीतर की ऊर्जा को तू तपा 

मन में शुभ संकल्प जगा 

नहीं भागने की.जिद्द कर 

स्वयं पर कर कुछ  काम  

जैसे सागर मध्य अनमोल  रत्न  

मन मस्तिष्क में तेरे ब्रह्मांड का तेज 

भागने की जिद्द छोङ 

तुझमें ही समाहित मनुष्य  

नवीनतम से नवीनतम संजोग ....

चल आ चलें भीतर की यात्रा की ऊर्जा से समाज  में लायें साकारात्मक भोर....







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