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संतोष का धन

जाने क्या पाना चाहता है यह मन 
ना खुद चैन से रहता है ना मुझे 
रहने देता है .. भटकाता रहता है 
हर पल ..अपने दायरों से बाहर  
निकल कर ऊंची- ऊंची उङाने भरता है 
जो मुमकिन नहीं.. उसे मुमकिन कर गुजरने 
की जिद्द  मेरी नहीं..मेरे मन की है ..
समुंद्र में उठती लहरों की तरह उछल- उछल कर  
अपने संग जाने क्या- क्या बहा ले जाना चाहता है 
नहीं लेने का नहीं देने का शौक रखता है मेरा मन 
ऐसा क्या करूं जो सबको खुशी दे पाऊं 
सबके लिए  बेहतर से भी बेहतरीन  हो 
कुछ  कर गुजरने की जिद्द ना जाने 
मुझे कहां ले जाये .. सीमाऐं तो बढाने पङेगीं 
दायरों से बाहर  निकल  कर  एक नया कारवां 
चलाना होगा .. जन्म लिया है तो जीना तो होगा ही 
पर सामंजस्य  बिठाकर  तुला की नोंक पर संतुलित 
फलदार  वृक्ष  की भांति सदैव  हरे- भरे रहने और  
निरंतर  कुछ  ना कुछ  देते रहने का भाव  देकर  
भेजा है भगवान  तो भरपूर  कर दो मुझे संतोष  के धन का वरदान दो .मन को ठहराव दो ...


 
  

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लेखक

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