एक अंतराल के बाद
अपनी प्रतिक्रिया निभाकर
जल ...
कैसे रूक जाऊंक्यों थक जाऊं
आगे बस आगे की ओर
बढ़ना ही तो मेरा लक्ष्य है
समा लेता हूं समर्पित तत्व
बहा ले जाता हूं आगे की ओर
किनारों पर पहुंचा
भीतर समस्त निर्मल
नियति ही मेरी ऐसी है
भीतर की ऊर्जा प्रेरित करती है
स्वभाव से निर्मल हूं शीतल भी हूं
वातावरण को नम रखता हूं
वाष्प बनकर मेघों का रूप भी धरता हूं
आकाश की ऊंचाईयों को छूने की कोशिश करता हूं
फिर एक दिन धरती पर ही बरस जाता हूं
मैं नदिया का बहता जल हूं
बूंद -बूंद बनकर वर्षा ऋतु में अपने अस्तित्व जल में मिलकर जलमग्न हो बहती सरिता हो जाता हूं ....
सरल समझ धोखा मत खाना
बाहर से शीतल हूं ..
भीतर एक आग लिए बैठा हूं
मैं नदिया का बहता जल हूं मैं
सत्तर प्रतिशत मनुष्य प्राणों में भी होता हूं
मैं जल हूं मैं तरल हूं मैं जीवन दान हूं
मेरा संरक्षण करोगे तो जीवन का सुख पाओगे ...
जीवन चक्र भी जल के समान ही चलता रहता है । जल के संरक्षण के लिए प्रेरक रचना ।
ReplyDeleteजी नमन आभार
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी आभार
Deleteबेहतरीन रचना सखी जल संकट और संरक्षण की महत्ता को रेखांकित करती हुई
ReplyDeleteअभिलाषा जी आभार आपको रचना पसंद आयी आभार
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