विजयादशमी का विजय का पर्व है...
प्रत्येक वर्ष रावण, मेघनाद, और कुम्भकर्ण
के बुराई रूपी पुतले जलाये जाते हैं ...
सोचो ...?बुराई का पुतला जलाकर, इतनी खुशी मिलती है
तो फिर क्यों ना ,मनुष्य के मन के अंदर छिपे
अंहकार रूपी रावण, ईर्ष्या, द्वेष रुपी कुम्भकर्ण
दम्भ ,क्रोध लोभ रूपी कुम्भकर्ण का अंत करें ...और
मन की सच्ची खुशी पायें
द्वापर में तो एक ही रावण था वो भी महाज्ञानी
अब कलयुग में असंख्य रावण रुपी विकार पल रहे हैं
समाज में .... अंत करना है मन के विकारों रूपी रावणों का.. पुतले फूंकने हैं ... ....
अब बुराई के पुतले ,बाहर नहीं.. भीतर
फूंकने है ,मन के भीतर ,विकारों का दाह संस्कार
कर सच्ची खुशी मनानी है ....
विजय प्राप्त करनी है स्वयं के मन के ऊपर
बुरे विचारों की आहुति देकर ..आओ विजय का
बिगुल बजायें...सच्चा हर्षोल्लास आनंद पायें ....
सही कहा रितु जी मन के द्वेष ही असली ऋखक्षस हैं बाहर पुतले जलाने से क्या होगा।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..
आभार सखी
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