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Showing posts from May, 2025

मोहब्बत ही केन्द बिंदू

मोहब्बत ही केन्द्र बिन्दु चलायमान यथार्थ सिन्धु  धुरी मोहब्बत पर बढ रहा जग सारा  मध्य ह्रदय अथाह क्षीर मोहब्बत  ना जाने क्यों मोहब्बत का प्यासा फिर रहा जग सारा  अव्यक्त दिल में मोहब्बत अनभिज्ञ भटक रहा जग सारा  मोहब्बत है सबकी प्यास फिर क्यों है दिल में नफरतों की आग  जाने किस कशमकश में चल रहा है जग सारा  मोहब्बत ही जीवन की सबकी खुराक  संसार मोहब्बत,आधार मोहब्बत  मोहब्बत की कश्ति में सब हो सवार  मोहब्बत ही जीवन  मोहब्बत ही सबका अरमान मोहब्बत ही सर्वस्व केन्द्र बिन्दु  भव्य भाव क्षीर सिंधु,प्रेम ही सर्वस्व केन्द्र बिन्दु   मध्यवर्ती  हिय भीतर एक जलजला, प्राणी  हिय प्रेम अमृत कलश भरा ।  मधुर मिलन परिकल्पना,  भावों प्रचंड हिय द्वंद  आत्म सागर भर-भर गागर,हिय अद्भुत संकल्पना  संकल्पना प्रचंड हिय खण्ड -खण्ड  मधुर मिलन परिकल्पना,मन साजे नितनयीअल्पना प्रेम ही सर्वस्व केन्द्र बिन्दु 

श्रम ही धर्म

*श्रम ही धर्म* श्रम की अराधना से मिटती है मुझ  श्रमिक के जीवन  की हर यातना  होकर मजबूर बनकर मजदूर    अपनों से दूर  जीविका की खातिर रुख करता हूं शहरों की ओर गांव की शांति से दूर शहरों का  भयावह शोर, ढालता हूं स्वयं को तपाता हूं तन को,बहलाता हूं मन को शहरों की विशाल,भव्य इमारतों में मुझ श्रमिक का रक्त पसीना भी चीना जाता शहरों की प्रग्रती और समृद्धि की  नींव मुझ जैसे अनगिनत श्रमिकों की देन है कभी -कभी शहर की भीड़ में खो जाता हूं  जब किसी महामारी के काल में, बैचैन, व्याकुल पैदल ही लौट चलता हूं ,मीलों मील अपनों  के पास अपने गांव अपने घर अपनों के बीच  अपनत्व की चाह में । स्वरचित :- ऋतु असूजा ऋषिकेश ।