आजकल मैं इंसानी बस्तियों से दूर रहता हूं
सामन्यता !मैने तो देखा नहीं
कभी किसी इंसान ने किसी इंसान में
अच्छाई ढूढी हो ..बहुत ही कम अच्छाई ढूढता है
एक मानव दूसरे मानव के भीतर
वरना कमियां ढूढने में इंसान माहिर है
चाहे स्वयं गलतियों का पुतला हो ....
अपनी कमी तो हो जाती है किसी कारण से
आदत से मजबूरी होती, है गलती नहीं
कमियां तो दूसरे इंसानों में होती हैं
स्वयं तो हम दूध के धूले होतें हैं
इसलिए आजकल मैं इंसानी बस्तियों से दूर रहता हूं
स्वयं में मदमस्त ..नहीं यह नदिया किसी में कमियां नहीं ढूढती
बल्कि सभी कमियों रुपी कूङा- करकट को किनारे कर देती है
पर्वतों ,वृक्ष वातावरण को महकाते ,स्वच्छ रखते हैं ..
मदमस्त हवा का झोंका उङा ले जाता सभी पतझङ किनारे पर
इकट्ठा कर देती है ... समुद्र की लहरों की मस्ती क्या कहिये ...
सत्य सुंदर और सार्थक रचना
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