पैरों में बांधकर जंजीर नचाने की आजादी है
यह कैसी आजादी है, पैर थिरकते हैं ,नाचते हैं
घायल होकर, अपने जख्मों के निशान छोङ जाते हैं
पर कटे पंखो का दर्द ,भी कितना.अजीब है
नाचता है मन ही मन ,उङता है भीतर ही भीतर ..
पंख फैलाकर उङने को उत्सुक ......
पर बेड़ियां भी शायद जरूरी हैं
अपनी सीमाओं का अंदाजा रहता है
सीमायें नहीं टूटती ,आखिर सबको अपनी
जमीं चाहिए, अपना आकाश चाहिए
बुनने को ख्वाब, एक आधार चाहिए...
ख्वाबों की जमीं पर आजाद पंख चाहिए
धरती की खूबसूरती हमसे है,
आसमान की ऊंचाइयों पर टिमटिमाते सितारों तक
ऊँची उङान चाहिए... ख्वाबों की धरती पर
कुछ निशान अपने भी चाहिए....
मत बांधों जंजीरें ,वो भी लिखेंगे तकरीरें अपनी
उनको भी उङने को खुला आसमान चाहिए...
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