आजकल मैं बाहर की कम
अंदर की यात्रा ज्यादा करती हूं
बाहर घूमकर देखा अपने अस्तित्व की ऐसी की तैसी हो गयी ,
जमाने की भीङ में ,मैं कहां खो गयी
अब अपना अस्तित्व पहचानने की कोशिश कर रही हूं
जब से गहराई में उतरी हूं
मालामाल हो गयी हूं
विभिन्न रत्न हाथ लग रहे हैं
बाहर का आकर्षण अब नहीं भाता
अपने अस्तित्व का आभास हो रहा है
मैं होकर भी मैं नहीं हूं
मैं होकर भी मैं ही हूं
माया का जाल अक्सर भरमाता है
अंतरिक्ष में तारे गिनती हूं
हर तारे की अपनी कहानी
जाने आग या पानी या दुनियां सुहानी
जानने को उत्सुक कोई अनसुनी कहानी
चांद की या फिर चांदनी की दुनियां दिवानी
नील समुंद्र की लहरों की खूबसूरती
मानों कहती हों जीवन की कहानी
दुनियां है आनी -जानी लहरों सी आती- जाती जिन्दगानी
मैं होकर भी ,मैं से ऊपर की कहानी
जिन्दगी सुहानी या फिर स्वप्न की कहानी ...
भीतर और बाहर हर पल यह दोनों यात्रायें चलती है साथ-साथ, सुंदर रचना !
ReplyDeleteआपने रचना पङी, समझी ,अभिव्यक्ति दी आभार..
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