शायद मेरा दर्पण मैला है,यह सोच मैं उसे बार-बार साफ करता रहा,
दाग दर्पण में नहीं मुझमें है,यह सोच मैं घबराया,
अपना चेहरा बार-बार साफ करने लगा, दाग चेहरे पर प्रतिबिंब था मेरे विचारों का--
दाग मेरे मन में था.. मैं अचंभित था.. भावों का प्रतिबिंब...!
परन्तु एक मसीहा जो हमेशा मेरे साथ चलता है,मेरा पथप्रदर्शक मेरा मार्गदर्शक है,
मुझे गुमराह होने से बचाता है!
उसने मुझे समझाया.. मन के मैल को साफ करने का ध्यान उपाय बताया...
परन्तु मैं मनुष्य अपनी नादानियों से भटक जाता हूँ,
स्वयं को समझदार समझ ठोकरों पर ठोकरें खाता हूँ,
दुनियां की रंगीनियों में स्वयं को इस कदर रंग लेता हूं,कि अभद्र हो जाता हूँ, फिर दर्पण देख पछताता हूं,और रोता हूँ..
फिर लौटकर मसीहा के पास जाता हूँ,
और उस परमपिता परमात्मा के आगे शीश झुकाता हूं, उस पर अपनी नादानियों के इल्जाम परमपिता पिता पर लगाता हूं..
वह परमपिता परमात्मा हम सबकी गलतियां माफ करता है...
वह मसीहा हम सबकी आत्मा में बैठा परमपिता परमात्मा है।।
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