मर रही संवेदनाऐं..
वेदना चहूं ओर है..
भागने की होड़ है.
आगे बढने की दौड़ में ..
मानवता कुचल रही..
कंक्रीट का शोर है..
प्रकृति का दमन हो रहा..
प्राण वायु घट रही..
संवेदना है मर रही..
पनप रही पाषाणता
मानवता है रो रही..
मानवता पर दानवता
सिर चढ कर चिल्ला रही
पाषाणता है बढ़ रही, मानवता है
रो रही, संवेदना कराह रही,
भावनाओं के पुष्प मुरझा रहे
सौन्दर्य भी अब लुप्त हुआ
संवेदनाओं का कत्ल हुआ
मानवता पर दानवता सिर चढ़कर
बोल रही.. कंक्रीट की मीनारों में
आधुनिकता बोल रही...
प्रकृति की सौम्यता अब कहाँ रही
सौन्दर्य प्रसाधन अब बढ रहे
लीप पोत कर सब खड़े.. भीतर से अभद्र हुये
संवेदना है रो रही, भाव शून्य सब हुये
सौन्दर्य अब लुप्त हुआ, पाषाणता के युग में
शूल सा मानव हुआ...
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