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Showing posts from October, 2024

अनोखा प्यार

  अनोखा प्यार *     *आव्यशक नहीं जो सामने है वो सत्य ही है किसी भी फल की पहचान ऊपरी परत हटाने पर ही पता चलती है *           यार तू रहने दे ,मैं इस दुनियां में अकेला था ,और अकेला ही ठीक हूं मेरा इस दुनियां में कोई नहीं।    मेरी मां तो पहले ही इस दुनियां से चली गई थी और मेरा पिता वो तो जीते जी ही मेरे लिये बहुत पहले ही  मर गया था । जब मैं आठ साल का था मेरे बाप को शौंक चड़ा था मुझे तैराकी सिखाने का ...... क्या कोई पिता अपने बच्चे को ऐसी तैराकी सिखाता है , धकेल दे दिया था मुझे स्विमिंग पुल में और छोड़ दिया था अकेला मरने के लिए,मैं चिल्ला रहा था पापा मुझे निकालो मैं मर जाऊंगा मुझे तैरना नहीं आता है पर मेरा पापा टस से मस नहीं हुआ ,आखिर दस मिनट बाद बहुत मशक्त करने के बाद मैंने हाथ -पैर मार के तैरना ही सीख लिया।   वैभव बोला हां और आज तू तैराकी चैंपियन भी है और कई अवार्ड भी ले चुका है,जानता है इसके पीछे कौन है ,तेरे पिताजी अगर उस दिन तेरे पिताजी तुझे अकेला ना छोड़ते तो तू आज तैरना ना सीख पाता और इतना बड़ा चैंपियन ना बनता ।  अर...

लोग मुझे कहते हैं जोकर

लोग मुझे कहते हैं जोकर  गुजारें हैं बहुत पल रो-रोकर  खाकर बहुत सी ठोकर.. बहुत घायल हुआ हूं-- सम्भला हूं...  अब मन कहता.. है!  खुशी है तेरी जो करना है, वो कर!  पाने को खुशी, रोया नयन धो-धोकर - -  अब खुशियों के पीछे नहीं भागता -- खुशीयां मेरे संग रहती हैं  लोग मुझे कहने लगे हैं जोकर-- मेरा मन कहता है - -  तू जो कर वो कर-- मन में जो आये-- वोकर - -  अब जो मन में आता है मैं वो करता हूं  खोकर सब कुछ पा गया हूं बहुत कुछ  कहता हूं - मन तू जो- कर - वो कर.. फिर चाहे  कोई कहे तुझे लाख जोकर...  खाकर अनगिन ठोकर बन गया हूं जोकर.. खुश हूं - -  लोगों को हंसने के बहाने देता हूं - -  कयूं कर गुजारुं जीवन रोकर  अब कहता हूं मन तू जो करना है वो कर  कहने दे जमाना जो कहे तुझे जो जोकर  तुझसे है जमाना, जमाना से तू नहीं  तेरा वजूद है तेरी शक्सियत -  तू खुशकिस्मत है, तेरी साफ है नियत  अब मैं बेफिक्र मुस्कराता हूं, हर दर्द मुस्कराहट में छिपाता हूं  दर्दों ने मेरा साथ कभी ना छोड़ा  मैने दर्दों को अपना ...

चलती रेल

चलती रेल  अद्भुत मेल बढाती लोकाचार  समाजिक व्यवहार  यात्री सवार  आवश्यकता आधार  सुहानी डगर  ताके इधर- उधर  मंजिल किधर   अन्जाना सफर  जीवन सरक संसार आनंद प्रकृति देवानंद  सुर उपजे  गाते गीत  दिल पीर  ख्वाब जंजीर  मन अधीर  नामुमकिन मनमीत  आशा दीद  चक्षु नीर  मुख प्रसन्न  दिल पीर  अद्भुत कला  बाहर आकर्षण  भीतर जंजाल  भाव कोलाहल  सविकृत सत्य  मन भेद  जीवन संक्षेप  तालमेल  सब खेल   चलती जीवन रेल  यात्री सवार  सफर यादगार  कर इकरार  ना इंकार  कर्म आधार जीवन सार... 

दोस्ती करोगे मुझसे

  दोस्ती करोगे मुझसे .... चलो कर ही लो... कभी घाटा नहीं होगा... फायदे में ही रहोगे.... जब कभी मन उदास हो, हताश हो... निराश हो....चले आना मेरे पास... मैं हल दूंगी ...  उदास मन में उम्मीद की नयी किरण जगा दूंगी ..... सब दुविधाओं का हल है मेरे पास....साकारात्मक विचारों का अद्भुत भंडार है....  जीवन के अनुभवों के आधार पर... मुझमें जीवन जीने की कला की अलौकिक सीखें हैं.... जिसमें परमात्मा की दिव्यता का प्रकाश है... मैं जीतना सिखाती हूं.... आगे की बढने के रहस्य बताती हूँ.....  हां मैं साकारात्मक विचारधारा आपकी हमसफर  बनने के काबिल हूं.... मैं वादा करती हूं.... मैनै  दोस्ती का हाथ बढाया है.... मेरी तरफ से दोस्ती पक्की है.... सोचना आपको है.... क्या मुझ किताब से दोस्ती करोगे......    दोस्ती को कभी हल्के में मत लेना...... दोस्ती हर रिश्ते से ऊपर होती है... दोस्ती फायदे या नुकसान के लिए नहीं होती.... दोस्ती दो दिलों की आवाज... आत्मा का आत्मा से सम्बंध होती है। दोस्ती फरिश्तों की नियामत होती है।  ।  अपने हिस्से की जमीन अपने हिस्से का आसमान स्वयं बनाना ...

विजय की दशमी

 विजयदशमी- विजय की दशमी  त्रेता युग में आज ही के दिन श्रीराम  ने अत्याचारी,अंहकार रावण को मार  बुराई का अंत किया था...  तभी से आज ही के दिन अश्विनी मास की   कृष्ण पक्ष की दशमी को....  दस सिरों वाले राक्षस रावण को मारने की  परम्परा चली आ रही है.... रावण, मेघनाद,  कुम्भकर्ण के पुतले तो हर वर्ष जलाये जाते हैं  जलाने वालों में वो लोग शामिल होते है  जिनके मनों में स्वयं असंख्य रावण रुपी  विकार घर बनाये बैठे होते हैं..... अब  आवश्यकता है, मन में पल रहे लोभ  इर्ष्या,द्वेष, अंहकार रुपी विकारों के रावणों को मारने की.....  हर वर्ष पुतले जलाकर पर्व मनाना स्वयं को याद दिलाना मनाना अच्छी बात है..  खुशी तब होगी जब मन के विकार रुपी रावणों का अंत होगा....   

आकर्षण

  आकर्षण* मेरे मित्र के अनुभव और मेरे शब्द...  मेरे मित्र ने अपने कुछ अनुभव मेरे साथ साझा किये.... जिन्हें मैं अपने शब्दों के माध्यम से साझा कर रही हूँ....  यह फितरत है मनुष्य की....अधिकांशतया मनुष्यों को बाहर की दुनियां आकर्षित करती है, मन को आकर्षण भाता है....... भागता है, मनुष्य बाहर की ओर....... जाने क्या पाता है.. जाने कितनी खुशी मिलती है.... जाने वो खुशी मिलती भी है की नहीं..... जिसे पाने के लिए वह अपना घर - परिवार छोड़..... बाहर निकलता है..... या फिर जीवन पर्यंत संघर्ष ही करता रहता है....... मन ही मन सोचता है...... अपना घर तो अपना ही  होता है...... जो सूकून जो सुख-चैन आराम अपने घर में है..... वो कहीं नहीं..... जाने कहां जा रहे हैं सब मंजिल कहीं ओर है, रास्ते कहीं ओर जान -बूझकर मंजिल से हटकर अन्जानी राहों पर चल रहे हैं लोग, सब अच्छा देखना चाहते हैं सब अच्छा सुनना चाहते हैं अच्छाई ही दिल को भाती भी है, अच्छाई पाकर गदगद भी होते हैं सब..भीतर सब अच्छाई ही चाहते हैं, फिर ना जाने क्यों भाग रहें हैं ,बिन सोचे समझे अंधों की तरह भेङ चाल की तरह ,जहां जमाना जा रहा है हमार...