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आकर्षण


 

आकर्षण* मेरे मित्र के अनुभव और मेरे शब्द... 

मेरे मित्र ने अपने कुछ अनुभव मेरे साथ साझा किये.... जिन्हें मैं अपने शब्दों के माध्यम से साझा कर रही हूँ.... 

यह फितरत है मनुष्य की....अधिकांशतया मनुष्यों को बाहर की दुनियां आकर्षित करती है, मन को आकर्षण भाता है.......

भागता है, मनुष्य बाहर की ओर....... जाने क्या पाता है.. जाने कितनी खुशी मिलती है.... जाने वो खुशी मिलती भी है की नहीं..... जिसे पाने के लिए वह अपना घर - परिवार छोड़..... बाहर निकलता है..... या फिर जीवन पर्यंत संघर्ष ही करता रहता है....... मन ही मन सोचता है...... अपना घर तो अपना ही  होता है...... जो सूकून जो सुख-चैन आराम अपने घर में है..... वो कहीं नहीं..... जाने कहां जा रहे हैं सब मंजिल कहीं ओर है, रास्ते कहीं ओर जान -बूझकर मंजिल से हटकर अन्जानी राहों पर चल रहे हैं लोग, सब अच्छा देखना चाहते हैं सब अच्छा सुनना चाहते हैं अच्छाई ही दिल को भाती भी है, अच्छाई पाकर गदगद भी होते हैं सब..भीतर सब अच्छाई ही चाहते हैं, फिर ना जाने क्यों भाग रहें हैं ,बिन सोचे समझे अंधों की तरह भेङ चाल की तरह ,जहां जमाना जा रहा है हमारी समझ की ऐसी की तैसी ,जहां जमाना जायेगा हम भी वहीं जायेगें ,बिना सोचे- विचारे अंधी दौङ में ,फिर चाहे खाई में गिरे या कुएं में ..अब रोना नहीं ,जिसके पीछे भागो हो ,वही मिलेगा जो जिसके पास  है ... समझाया होगा मन ने कई बार ...पर अपने घरवालों और अपने मन की कौन सुनता है ..घर की मुर्गी दाल बराबर  ... अपने सबसे अजीज मित्र अपने ही मन का जो ना हुआ ... उसकी जमाने से अच्छाई की उम्मीद करना निर्रथक है ....अच्छाई जो दिल को भाती है ...

तो अपने मन की सुनों मन की करो मन कभी गलत राह नहीं दिखाता ,उसे फिक्र होती है अपनों की ,भटकने से रोकता है मन ,समझाता है, सिक्के के दोनों पहलू समझाता है ...क्योकि मन सिर्फ अच्छा देखना चाहता है ...अच्छा और सब और अच्छा चाहता है ...



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